किसान, आंदोलन और भूख का सत्य...!

झूठों, मक्कारों और प्रपंचियों के साथ दिक्कत सबसे बड़ी ये होती है कि उन्हें सामने का चिर सत्य भी साजिश लगता है। इतिहास का सत्य अफवाह, वर्तमान का सत्य षड्यंत्र और भविष्य का सच ये भय के साथ मिक्स कर तैयार करते हैं। इस पूरे मिश्रण में आपके सत्य की कोई जगह नहीं बचती। आप जो बोलेंगे वो सब पहले झूठ करार दिया जाएगा और फिर द्रोही की उपाधि! आप बिलबिलाते रह जाएंगे इस पूरे व्यूह में, झूठ के आडंबर की फांस में। आपको आपके ही देखे समझे और सर्वहित के सत्य का सवाल कचोटता रहेगा। लेकिन आप बागी के सिवा कुछ नहीं कहलाएंगे। आप पूछेंगे सत्य क्या है? तो सत्य ये है कि धरती सूरज के चक्कर लगाती है। सत्य ये है कि फसल बीज से बनती है और फसल से बीज। सत्य ये है कि हमारे आदमी से इंसान बनने की शुरुआत धरती की खुदाई कर बीज बोने से हुई। मांसजीवी को अपने बोए बीजों से पहली फसल का स्वाद मिला तो उसे इसमें लअपने भूख और भरण पोषण का बेहतर विकल्प दिखा। सत्य ये है कि उसी विकल्प से मौजूदा इंसानी समाज का सफर शुरू हुआ। जीवन चक्र में अन्न के साथ एक नया 'फूड चेन' बना, जिसके साथ हम विकसित हुए, खेती किसानी और मुक्त व्यापार की आदि परंपरा के साथ हम आधुनिक उद्योग की तरफ अग्रसर हुए। इस सफर में संघर्ष तमाम हुए, विस्तार के लिए लड़ाइयां लडी गईं। पंथ बने, परंपराओं के साथ नए देश बने। सत्ताएं बननी शुरू हुई। इसके लिए राजनीति की रचना हुई, लेकिन किसान आज भी भरण पोषण की उसी आदि पंरपरा का वाहक है, जहां से हमारे इंसान बनने की शुरुआत हुई। सत्ताओं की हर सदी में उसका जोत ही उसकी आमद का श्रोत रहा। आज भी। उसकी फसल जब संकट में हो सब भूल जाता है। सियासत का होश उसे नहीं रहता। वो फसल खराब होने पर बीज से लेकर खाद और पूरे साल की मेहनत को टटोलता है। देखता है कमी कहां रह गई। जैसे बीज में घुन्न और फसल में बीमारी का इलाज करता है, उसी तरह अपनी कम आमद का श्रोत भी समझ जाता है- इसमें घुन्न कहां लगा है। वो तब खड़ा होता है और पूछता है- उसके श्रोत का सौदा सत्ता कैसे तय कर सकती है? वो भी उसके बिना सलाह के। वो सवाल पूछता है। वो आतंकित नहीं करता, बल्कि सत्ता नहीं सुनती तो अन्न त्याग कर विरोध जताता है। अन्नदाता खुद भूखा रहकर जताता है- देखो, यही वो भूख हमारे होने का अंतिम सत्य है। हमे न भूख लगती, ना ही हम अन्न उपजाने का उपाय करते। जब ये ना होता तो ना हम इंसान बने होते और ना ही ये समाज। सत्ता तो खैर भूल ही जाओ। इसलिए सत्य यही है- जैसे धरती हमारे वजूद का आधार है, उसी तरह इसे जोत कर जीवन देने वाला अन्नदाता, जन्मदाता। इसे हाशिए पर धकेलना हर दौर में घातक हुआ है। ये इतिहास का सत्य है। वर्तमान में दोहराना किसी के लिए शुभ नहीं हो सकता। समाधान के लिए इस सत्य को समझना होगा। क्योंकि छल, प्रपंच और दिखावे की मंशा उस कीट की तरह होती है, जिसकी उम्र तभी तक होती है जबतक किसान की नजर उसतक नहीं जाती। किसान की आंख खुल गई तो फसल की जड़ खोदने वाले की की खैर नहीं। सत्य ये है!

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