और क्या करूं, तुम्हारे लिए अयोध्या भी बन गया!



अयोध्या के रूप में मैं, लीजिए जी मैं आ गया, चार महीने को हुए आपसे कुछ बात करते हुए. क्या करें जी, मन में कुछ मलाल सा हो रहा था लिखने पढ़ने के बार बार बेअसर रहने से. मई-जून में महीने भर गांव में रहा, घड़ी की सुइयां माजी की तरफ मुड़ गईं थी. शहर आया, तो फिर से निरर्थकता सताने लगी. 24 घंटे न्यूज चैनल कुनबे का हूं. कुनबे के मान अपमान में मैं भी शरीक था- जाहिर है. इस ख्याल ने मन का वो मलाल और भी बढ़ा दिया. मैं बेकलम सा हो गया. सोचने लगा कि लिखकर क्या फायदा, कोई सुनने सुधरने या विचारने वाला तो है नहीं. अगर है भी तो उसका हमे पता नहीं.

अयोध्या पर आने वाले फैसले ने मेरे अंदर के इंसान को डरा दिया. 20 साल के थे तब हम. सूझ-बूझ थी, कि मस्जिद टूटने के बाद क्या होगा. मैंने कलम उठा लिया. और अयोध्या जाने कब अयोध्या बन गया-


6 दिसम्बर, 1992
18 साल से ये तारीख मुझे चुभती रही है. ऐसी नासूर बन चुकी है ये तारीख जिसकी अब सिहरन भी नहीं सही जाती. उस दिन मेरी बेबसी की इम्तेहां हो गईं. मैं चुपचाप देखती रही. मेरी एक निशानी को हमेशा हमेशा के लिए मिटा दिया गया...

बाबरी नाम की वो मस्जिद मेरे लिए उतनी ही प्यारी थी, जितनी राम जन्मभूमि. अपनी दो औलादों की तरह. दुनिया की कौन मां होगी जो अपने ही बच्चों में फर्क करती हो. लेकिन मेरा दर्द कोई नहीं समझता. मेरे एक बच्चे को छीनकर मेरे सामने ही जमींदोज कर दिया गया...

मैंने वो दर्द भी झेल लिया था. मैं अपने दर्द के साथ खामोश हो गई थी, लेकिन मेरे जख्म को सूखने नहीं दिया गया। कभी मजहब के नाम पर, तो कभी सियासत के नाम पर. मेरे दामन को अखाड़ा बना दिया गया। किसी ने कभी मेरे दिल की बात नहीं सुननी चाही। किसी ने मेरी गोद में बसने वालों की राय नहीं जाननी चाही.

देश को आजादी मिलने के बाद तो जैसे मेरी अमन की जिंदगी को काली नजर लग गई. मेरे बाशिंदो को तो कभी ये मलाल नहीं रहा कि मंदिर कब बना और मस्जिद कब बनी. इनसे बगैर पूछे ही नारे बुलंद किए जाने लगे।
किसकी आस्था, किसकी धरोहर. इस पर तो सबसे पहले मेरा हक बनता है. लेकिन लोगों ने तो अपने अपने झंडे बुलंद कर रखे हैं. ये सब देख- सुनकर मुझे कितना दर्द होता है, ये कोई नहीं जानता. 18 साल से तारीख दर तारीख ऐसे ही दावे किए जाते है. मेरे दर्द की परवाह किए बगैर.

कोर्ट भी क्या फैसला करे. इसके हवाले करे, तो उसको दुख. उसको हवाले करे तो इसको कष्ट. 18 साल से कोर्ट भी पसोपेश में है. दोनों पक्ष चाहते, तो इस विवाद में बीच का रास्ता निकल सकता था, लेकिन लोग हैं कि पीछे हटने को तैयार नहीं. कह रहे हैं इस कोर्ट में दावा सही साबित नहीं होता, तो उपरी अदालत में जाएंगे।

किसी को राम मंदिर चाहिए, किसी को मस्जिद. मैं आपसे, पूरे देश से पूछना चाहूंगी. क्या मेरे आंगन में बने इतने मंदिर और मस्जिद कम हैं जो नई निशानी बनाने का जुनून है। क्या ऐसी जिद का कभी अंत हुआ है. एक कोर्ट का फैसला नहीं मानने वाले, क्या जरूरी है कि ऊपरी अदालत के फैसले को पचा लें? विवाद को सुलझाने के लिए कोर्ट तो व्यवस्था ही देगा. लेकिन यहां तो लोग मजहब की आड़ में सत्ता को हिलाने के लिए तैयार हैं. मेरी मानिए- मेरे बाशिंदों को मंदिर-मस्जिद से ज्यादा बस सुकून चाहिए। हिंदू हो या मुसलमान अपने शहर को कोई अखाड़ा नहीं बनने देना चाहता.


सुना आपने, मेरे बाशिंदों को वक्त की सुई पीछे घुमाने की आदत नहीं. वो आज में जीते हैं, कल के सुंदर से सपने में खुश रहना चाहते हैं। ये तो अमन से ज्यादा मांग भी क्या रहे हैं. मेरे आंगन में मंदिर-मस्जिद के विवाद पर साठ साल से चल रहा है मुकदमा।

सुनवाई होती रही, गवाहियां होती रहीं। इतिहासकारों के बयान दर्ज हुए, एएसआई की रिपोर्ट लिखते लिखते 15 हजार पन्नों से ज्यादा भर गए। लेकिन वक्त की सुइयों ने आगे का रुख नहीं किया. इस तनातनी में मेरी हालत क्या होगी. इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। मेरी हर गली, हर कूचे में सख्त पहरा बिठा दिया गया है. मेरे अपने बाशिंदे जैसे मेरी गोद में ही अजनबी हो गए हैं।

अब इससे ज्यादा क्या करें- पत्रकार हैं तो हवाला ही तो दे सकते हैं, कि भैये संभल के, दुनिया सिर्फ एक बार ही मिल सकती है. इंसान बनकर फैसला करो, और इंसान बनकर अमल करो.

अब आप ही बताइए, बात नहीं मानिएगा, तो मेरे मन का मलाल बढ़ाईएगा ही न. इसमें मेरा कुछ स्वार्थ लगता हो, तो ये भी बताईएगा

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