ठाकरेगर्दी- गुंडों की डिक्शनरी में नया शब्द



खत्म कर दो ठाकरे की ठसक
ठाकरे को ठोक दो
ठाकरे को ठेल दो जेल में
नही चलेगी ये ठाकरेगर्दी

टीवी पर एक से बढ़कर एक स्लग देखने को मिल रहे है (इनमें से कुछ मैने भी बनाए हैं) लेकिन कोई असर पड़ रहा है क्या?

पूरे कुनबे ने मीडिया को हाईजैक कर लिया है. एक के बाद एक बुलेटिन एक के बाद एक स्पेशल सब ठाकरे को समर्पित...

जितनी गाली गलौच 'सामना' के गुंडे करते हैं, उससे 'भारी भरकम शब्द'(थोड़ी सभ्य भाषा में) टीवी पर सुनाई दे रहे हैं. लेकिन 'मातोश्री'के बाशिंदो को कोई फर्क नहीं पड़ रहा. जैसे मंद मंद मुस्करा रहे हो- दे लो बेटा, दे लो, ये तो हमारा पचासो साल पुराना खेल है, जितना खेलोगे हमारे तो उतने ही मजे हैं- दो जी भर के, निकाल लो अपनी भड़ास...हमारी तो फितरत है, न कुछ करेंगे, न कुछ करने देंगे...

'ठाकरेगर्दी' मातोश्री के इसी पचास साल के खेल की उपलब्धि है- यूं कहें की सबसे बड़ी उपलब्धि. इससे पहले क्या क्या नहीं किया ठाकरे घराने ने- पिच खोदने से लेकर उत्तर भारतीयों को भगाने का बीड़ा उठाने तक, लेकिन ऐसा धांसू विशेषण कभी नहीं मिला-जो 'खान' की खिलाफत में मिला. मातोश्री में तो जश्न है इस उपलब्धि पर...

आखिर करना क्या होता है. जितनी रात को मैं ठाकरेगर्दी की व्याख्या कर रहा हूं, उतनी रात को रोज एक पेज लिखना होता है- कुछ नए स्लग्स और हेडर के साथ. फिर सुबह अपने आप ही हंगामा मच जाता है. विजुअल न होते हुए भी कुछ सड़े हुए शब्द छांटकर टीवी वाले शुरु हो जाते हैं. ठाकरे ने ये कह दिया, ठाकरे ने वो कह दिया...अरे यार, आफत हो गई.

इससे तो बड़ी आफत तब, जब कोई प्रोड्यूसर कोई शब्द या एंगिल मिस करे, फिर तो संपादक महोदय जैसे खा जाएंगे- जाहिल कहीं के, जिस शब्द से टीआरपी मिलेगी, वही मिस कर गए- कैसे पापी प्रोड्यूसर हो, टीआरपी को पैदा होने से पहले ही गला घोंट देते हो...

और ये बात जैसे ठाकरे अपने चेंबर में बैठकर सुन रहे होते हैं, अगली सुबह रोज नया जुमला मारते हैं, और बेचारा प्रोड्यूसर...

खैर, यहां प्रोड्यूसर का दर्द कोई मायने नहीं रखता, पत्रकारिता की नौकरी में ये तो बहुत छोटा सा दर्द है, बड़ा दर्द ये है कि चाहते हुए भी कोई शब्द सार्थक नहीं बन पड़ता. न बहस सार्थक न असर सार्थक. जितना दिखाया, उतना ही मामला बिगड़ता गया, जितना ठोका, उतना ही हौसला बढ़ता गया. न 'खान' की मुसीबत कम हुई, न सरकार पर कार्रवाई का दवाब बढ़ा, जो जैसा था, वैसा ही रहा. ले दे कर कई चैनलों की टीआरपी जरूर बढ़ी, लेकिन उसका क्या अचार डालेगा प्रोड्सूयर?

कहते हैं पत्रकारों में अब वो बात नहीं, ठोकने की वो ताकत नहीं, वो जोश नहीं, वो होश नहीं...कहां से रहेगा भैया. कई दिन की माथापच्ची के बाद मिलता क्या है- गुंडागर्दी का एक पर्याय- ठाकरेगर्दी. अब इसे ही गोद में लेकर हिला रहे हैं, जैसे अपना पैदा किया हुआ खेलाते हैं- एक गुंड किस्म की औलाद ठाकरेगर्दी...

हाय रे बदकिस्मती! कम से कम कान में ही फुसफुसा दे- तू किसकी पैदा की हुई है बदजात!

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