उन कच्चे बरतनों की पक्की याद...


ये तस्वीर देखते रहिए, नाराज है तो भी, इस तस्वीर में कितना कुछ है समझने को, कितना कुछ अन-समझा छोड़ देने को...

तब तक...
मैं 3 महीने से हो रही गले में खराश को 'खखार' लेता हूं...

बोलना खटकता है, चुप रहना सालता है, 'मंच' पर आकर सिर्फ मुंह ताकते रहने कितना अपमानजनक लगता है.
आंधी आई, बारिश हुई, तूफान आया (आते आते गुजर गया) कुछ भी तो नहीं बोला-
सेंसेक्स चढ़ा, सचिन सत्रह हजारी हुए, राज ठाकरे का उदय हुआ, सड़क की गुंडागर्दी सदन में समा गई- मैं 'निकम्मा' कुछ नहीं बोला...

आतंक का खतरा पैदा हुआ, 2012 में दुनिया के अंत की तारीख पक्की हो गई....
ये सब सुनते देखते प्रभाष जी चले गए...
फिर भी कुछ नहीं बोला...
दिल में ही रह गई उस मुलाकात की याद...1999 की बात है- 'सुबह सवेरे' के स्टूडियो में 'कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी आत्मीयता' से कहा-
बच्चा, (मैं पंडित नहीं) गांव से आए हो, जम के काम करो. जब तक गांव याद रहेगा, आगे बढ़ते रहोगे...(मुकेश कुमार जी गवाह हैं)

मौत की खबर पाकर मेरा भी मन हुआ जनसत्ता अपार्टमेंट जाऊं. लेकिन अगले ही पल एक झिझक ने घेर लिया.
कहां उनसे पहचान और साथ वक्त बिताने वाले बड़े बड़े संपादक और लिक्खाड़ और कहां मैं...
जाऊंगा तो सोचेंगे मीडिया में टीआरपी बढ़ाने का मुंह लेकर आया है...बड़े पत्रकारों की जमात में खुद को जबरन शामिल कराने आया है
सदमे पर हावी हो गई झिझक, मातम में नहीं गया, चुपचाप उनकी मौत के बाद छपे औरों के संस्मरण पढ़ता रहा...
अपनी चुप्पी में औरों संस्मरणों में उठाए गए सवाल के जवाब ढूंढता रहा- अब वैसे कागद कारे कौन करेगा? हिंदी पत्रकारिता का कौन होगा स्तंभपुरुष? (इस सवाल के आगे बड़े संपादक भी लाचार है!)

और कमाल देखिए, कि ये बात कहने में भी हफ्ता लग गया...

चुप्पी टूटी इस तस्वीर से... ऐसे ही कहीं नेट पर मिल गई थी...
तस्वीर देखते ही याद आ गया गांव...
वो कुम्हारिन जो प्राइमरी स्कूल के पीछे रहती थी. स्कूल की खिड़की से बाहर बरतन बनाने में हर रोज लीन...जितने रूखे उसके हाथ उतने ही चिकने कच्ची मिट्टी के वो बरतन...

मां के साथ कई बार उसके पास जाता था- अक्सर छुट्टी की घंटी बजने के बाद. स्कूल के बाद मां बरतन के लिए कहने जाती, मैं उनके पीछे कच्चे बरतनों को निहारने में जुट जाता...
कई कच्चे दीये, ढकने और मटकी मेरी इस हरकत की वजह से टेढे मेढ़े हो गए, लेकिन मां से आत्मीयता की वजह से कभी उसने कुछ कहा नहीं...बल्कि हाथ में एक दो दीये और थमा देती थी...
तस्वीर देखी, तो उसकी याद आ गई. पता नहीं वो किस हाल में होगी. क्या कर रहे होंगे उसके बेटे. घर फोन कर पूछा तो पता चला- उसका क्रांतिकारी विचार वाला पति पिछले 5 साल से घर नहीं लौटा...
बरतन से अब पेट नहीं भरता, सो बेटे गांव छोड़ कर चले गए हैं...
पिछली दीवाली पर मिट्टी के कुछ दीये और बरतन लेकर घर लेकर आई थी...मां ने अनाज के साथ कुछ खाने को दिया तो रोने लगी...
आंसुओं में बहकर बोझ कुछ हल्का हुआ तो मेरे बारे में पूछा...इस बार मां उसके आंसूओं में बह गई...

टिप्पणियाँ

छोटे छोटे मगर गहरे भाव लिये ये संस्मरण बहुत अच्छे लगे। कहने का ढंग सुन्दर है शुभकामनायें

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