सौ 'सोनार' की, एक 'लोहार' की
लोकतंत्र में ये बताने की जरूरत नहीं है सोनार कौन है लोहार कौन है- 15वीं लोक सभा के नतीजे सामने हैं तब तो और भी नहीं...
लोहार इतने भी स्थूल नहीं होते जो झांसे में आ जाए। वो अपनी जगह पर स्थूल होते हुए भी समझते हैं- काले धन की वापसी की बात अब क्यों हो रही है, अपनी सरकार के दौरान तो आप भी औरों की तरह कुंडली मारकर बैठेगे- और लाओगे तो भी क्या करोगे- उसमें लोहारों का क्या फायदा- लूटेंगे तो सोनार ही. 'सबको साथ लेकर चलने' का सच इतना नंगा है कि डर गए लोहार. पता नहीं कब कौन सा फायरब्रांड बनने की कोशिश करेगा और कटुआ कह कर काटने लगेगा. और सारे दलील भी यही देंगे 15 वीं शताब्दी में हमारे साथ जो हुआ उसी का तो बदला ले रहे हैं. ये हमारा राष्ट्रधर्म है और इस धर्म का प्रचार पूरे देश में रथ यात्राएं कर होने लगेगा.
पता नहीं, इतना सीनियर होते हुए भी आडवाणी जी ये क्यों नहीं समझ पाए। पता नहीं, समझे भी हों तो साथियों ने अमल नहीं किया हो, और वो ताउम्र के लिए पीएम इन वेटिंग रह गए. लेकिन जिन्होंने समझी ये बात- उनका भला ही हुआ- उड़ीसा का उदाहरण पहले से ही था, इस बार बंगाल में ममता और बिहार में नीतिश कुमार ने साबित कर दिया कि 'सबको साथ लेकर चलने' का नारा देने से पहले जमीन किस तरह से तैयार करनी पड़ती है.
नेताओं को लोकतंत्र का सोनार कह देने से ऐसा नहीं है कि उनकी जाति सिर्फ एक होती है, इनकी एक उपजाति लालू-पासवान जैसी होती है। ये गजब के सोनार हैं- अपनी चोट पर इन्हें औरों से ज्यादा खुद घमंड होता है. चोट करते हैं तो माइक लगाकर ढिंढोरा पीटते हैं- देखो- मैंने क्या शॉट मारा. यूपीए की मलाई को चुपके चुपके खाई, लेकिन अलग हुए तो खूब ढिंढोरा पीटा. लेकिन लोहार समझ गए- चारा खाने वाले पांच साल तक मलाई खाकर अब कोई और 'आइटम' खाने की जुगाड़ में है, वर्ना जिस मुलायम से वर्षों तक कठोर तनातनी रही, वो अचानक दोस्त बन गए. लोहारों ने पंचतंत्र की गदहे और सियार की दोस्ती वाली कहानी पढ़ी है, सो समझ गए अमर के जुगाड़ पर अचानक हुई दोस्ती का मतलब. पासवान के पास तो खैर बोलने के लिए मुंह ही नहीं रहा, लालू और अमर की जुबान खुली भी तो लग गया 'मलाई' से पेट भरा नहीं है अभी, बिन बुलाए समर्थन की थाली लेकर फिर से हाजिर है.
अब मिलिए सियासत के मोटे सोनारों से- बाहुबलियों से। हर पार्टी ने इनकी हकीकत जानते हुए भी जनता के सामने उतारा था अपनी 'साख' बढ़ाने के लिए, वो भी देश के कानून का हवाला देते हुए- मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी,अरुण कुमार शुक्ला 'अन्ना', अतीक अहमद, अक्षय प्रताप सिंह, मुन्ना शुक्ला, डी पी यादव। पप्पू यादव, आनंद मोहन और शहाबुद्दीन को तो कोर्ट ने पहले ही किनारा कर दिया था लेकिन इन्होंने अपनी बीवियों रंजीता रंजन, लवली आनंद और हेना साहिब को मैदान में उतारा था. इनकी पार्टियों को जिक्र इसलिए जरूरी नहीं, क्योंकि जिसने भी इन्हें उतारा बाहुबलियों पर इनकी नजर कहीं न कही एक है- एक घाट पर पानी पीने वाले. लेकिन लोहारों ने बता दिया- अगर घाट गंदा हो, तो आपको तय करना पड़ेगा, प्यासे मर जाएं, यहां पानी नहीं पीना है, वर्ना चोट ऐसी पड़ेगी कि बाहु का बल और बंदूक की नाल धरी की धरी रह जाएगी.
हारने वाली पार्टियों के समर्थकों, अगर आपने यहां तक पढ़ने की जहमत उठाई है तो मेरी बात का बुरा न मानना, अब तक मैने जो कहने की कोशिश की है, उसका अंडरकरंट लब्बोलुआब ये है कि लोकतंत्र में लोहार से सीधे जुड़े मुद्दे के बिना बात नहीं बनती. समझ लीजिए इस मामले में पूरे देश के लोहार एक होते हैं, वर्ना महाराष्ट्र के लोहारों को लुभाने के लिए राज ठाकरे और शिवसेना ने कुछ कम किया था- नतीजा क्या हुआ, याद नहीं तो इलेक्शन कमीशन की साइट पर जाकर देख लीजिए।
गजब का है मुहावरा- 100 सोनार की एक लोहार की- जो सामाजिक ढांचे के विपरीत लोहार को सोनार से ज्यादा असरदार साबित करता है, ये भी बताता है सोनार (चमकती दमकती देह और वजन से हल्का लेकिन से गद्दी से मालदार) की आदत होती है चोट करते रहने की, अपनी मर्जी (हित) के मुताबिक चीजों को आकार देने की। लेकिन लोहार (काला कलूटा, धीर गंभीर मगर स्थूल और लाचार) की स्थूल देह जब हरकत में आती है, चोट करने की उसकी बारी आती है चीजों को जड़ से हिलाकर रख देता है।
अब इस कहावत को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में फिट कर देखते हैं- सोनार मतलब नेता और लोहार मतलब जनता समझे तो तस्वीर कुछ तरह बनती है...
नतीजे बता रहे हैं देश के जिन 'सोनारों' ने पांच साल तक अपने फायदे के लिए राजनीति को आकार देना चाहा उन्हें 'लोहारों' ने तहस नहस कर दिया। 'मुसलमानों के हाथ काटने वाले' बयान को 'हवा देने वाले' या फिर 'खुल कर निंदा न करने वालों' को बता दिया की लोहार की चोट क्या होती है. दामन में दंगे का दाग छुपाकर चुनावी रैलियों में 'विकास बड़ी बड़ी बातें' कहने वालों को दिखा दिया कि बार बार चोट करने की अपनी आदत से बाज आओ.
लोहार इतने भी स्थूल नहीं होते जो झांसे में आ जाए। वो अपनी जगह पर स्थूल होते हुए भी समझते हैं- काले धन की वापसी की बात अब क्यों हो रही है, अपनी सरकार के दौरान तो आप भी औरों की तरह कुंडली मारकर बैठेगे- और लाओगे तो भी क्या करोगे- उसमें लोहारों का क्या फायदा- लूटेंगे तो सोनार ही. 'सबको साथ लेकर चलने' का सच इतना नंगा है कि डर गए लोहार. पता नहीं कब कौन सा फायरब्रांड बनने की कोशिश करेगा और कटुआ कह कर काटने लगेगा. और सारे दलील भी यही देंगे 15 वीं शताब्दी में हमारे साथ जो हुआ उसी का तो बदला ले रहे हैं. ये हमारा राष्ट्रधर्म है और इस धर्म का प्रचार पूरे देश में रथ यात्राएं कर होने लगेगा.
पता नहीं, इतना सीनियर होते हुए भी आडवाणी जी ये क्यों नहीं समझ पाए। पता नहीं, समझे भी हों तो साथियों ने अमल नहीं किया हो, और वो ताउम्र के लिए पीएम इन वेटिंग रह गए. लेकिन जिन्होंने समझी ये बात- उनका भला ही हुआ- उड़ीसा का उदाहरण पहले से ही था, इस बार बंगाल में ममता और बिहार में नीतिश कुमार ने साबित कर दिया कि 'सबको साथ लेकर चलने' का नारा देने से पहले जमीन किस तरह से तैयार करनी पड़ती है.
नेताओं को लोकतंत्र का सोनार कह देने से ऐसा नहीं है कि उनकी जाति सिर्फ एक होती है, इनकी एक उपजाति लालू-पासवान जैसी होती है। ये गजब के सोनार हैं- अपनी चोट पर इन्हें औरों से ज्यादा खुद घमंड होता है. चोट करते हैं तो माइक लगाकर ढिंढोरा पीटते हैं- देखो- मैंने क्या शॉट मारा. यूपीए की मलाई को चुपके चुपके खाई, लेकिन अलग हुए तो खूब ढिंढोरा पीटा. लेकिन लोहार समझ गए- चारा खाने वाले पांच साल तक मलाई खाकर अब कोई और 'आइटम' खाने की जुगाड़ में है, वर्ना जिस मुलायम से वर्षों तक कठोर तनातनी रही, वो अचानक दोस्त बन गए. लोहारों ने पंचतंत्र की गदहे और सियार की दोस्ती वाली कहानी पढ़ी है, सो समझ गए अमर के जुगाड़ पर अचानक हुई दोस्ती का मतलब. पासवान के पास तो खैर बोलने के लिए मुंह ही नहीं रहा, लालू और अमर की जुबान खुली भी तो लग गया 'मलाई' से पेट भरा नहीं है अभी, बिन बुलाए समर्थन की थाली लेकर फिर से हाजिर है.
लाल सोना पीटने वालों की तो पूछिए मत, 60 साल पहले ही हो चुके हैं- अपना एजेंडा नहीं समझा पाए- ये वर्ग हित की बात करते हैं, कि राष्ट्रहित की या फिर '...हित' की, लोहारों को इनकी न 'साथ आने की बात' समझ आई न 'दूर जाने की'। न्यूक्लियर डील को देशहित के खिलाफ कहकर हट तो गए शक्ल सूरत से समझदार दिखने वाले करात साहब, लेकिन जनआंदोलन नहीं बना पाए मुद्दे को- अगर ये राष्ट्रहित से जुड़ा इतना ही बड़ा मुद्दा था तो. बल्कि उल्टे लाल गुट ने कांग्रेस के साथ दोबारा आने पर भी कन्फ्यूजन बनाए रखा- न चुनाव के दौरान न चुनाव बाद. लोहार समझ गए- ये 'लाल लोग' सत्ता की सफेद मलाई फिर से खाने की तैयारी में हैं.
अब मिलिए सियासत के मोटे सोनारों से- बाहुबलियों से। हर पार्टी ने इनकी हकीकत जानते हुए भी जनता के सामने उतारा था अपनी 'साख' बढ़ाने के लिए, वो भी देश के कानून का हवाला देते हुए- मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी,अरुण कुमार शुक्ला 'अन्ना', अतीक अहमद, अक्षय प्रताप सिंह, मुन्ना शुक्ला, डी पी यादव। पप्पू यादव, आनंद मोहन और शहाबुद्दीन को तो कोर्ट ने पहले ही किनारा कर दिया था लेकिन इन्होंने अपनी बीवियों रंजीता रंजन, लवली आनंद और हेना साहिब को मैदान में उतारा था. इनकी पार्टियों को जिक्र इसलिए जरूरी नहीं, क्योंकि जिसने भी इन्हें उतारा बाहुबलियों पर इनकी नजर कहीं न कही एक है- एक घाट पर पानी पीने वाले. लेकिन लोहारों ने बता दिया- अगर घाट गंदा हो, तो आपको तय करना पड़ेगा, प्यासे मर जाएं, यहां पानी नहीं पीना है, वर्ना चोट ऐसी पड़ेगी कि बाहु का बल और बंदूक की नाल धरी की धरी रह जाएगी.
हारने वाली पार्टियों के समर्थकों, अगर आपने यहां तक पढ़ने की जहमत उठाई है तो मेरी बात का बुरा न मानना, अब तक मैने जो कहने की कोशिश की है, उसका अंडरकरंट लब्बोलुआब ये है कि लोकतंत्र में लोहार से सीधे जुड़े मुद्दे के बिना बात नहीं बनती. समझ लीजिए इस मामले में पूरे देश के लोहार एक होते हैं, वर्ना महाराष्ट्र के लोहारों को लुभाने के लिए राज ठाकरे और शिवसेना ने कुछ कम किया था- नतीजा क्या हुआ, याद नहीं तो इलेक्शन कमीशन की साइट पर जाकर देख लीजिए।
अब समझ लीजिए- लौहपुरुष कहलाने और कमजोर प्रधानमंत्री करार दिए जाने में क्या फर्क है. राहुल और वरुण गांधी में क्या फर्क है. ये भी जान लीजिए, लोहारों को वंशवाद और विदेशी मूल की बातें 21 वीं सदी में नहीं सुहाती. घटिया मुद्दों के बहाने लोहारों के पेट की अनदेखी होगी, तो वो लात मारेगा ही. दिल की बात कीजिए, लोहार आपके भी होंगे।
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