नीले, पीले दो सवालों के जवाब में

अगर आपके लक्ष्य को दिलरुबा कहूं, जैसे कि गालिब ने कहा है- अपने हर अरमान को अपने महबूब के रूप में बयां किया है, जिंदगी की नाकामियों को लख्त-ए-जिगर की रुसवाई के रूप में इजहार किया है- हर सांस में अपने यार का एहसास किया है, मसलन-
यह न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतजार होता।
गालिब ने यहां शख्स का अक्स परोसा है, वो यहां मर रहा है, दुनिया को अलविदा कह रहा है, लेकिन अफसोस नहीं- कह रहा है- मेरी तो किस्मत में ही नहीं लिखी थी यार से मुलाकात, पूरी उम्र उसका इंतजार करता रहा, वो नहीं आई मिलने, अब जीने में कोई फायदा नहीं, जब तक जीते तब तक इंतजार का दर्द उठाते रहते।
आप इस शख्स की मायूसी को समझ सकती हैं- जिंदगी में मंजिल के होने का एक मतलब ये होता है। मिल गई तो मंजिल, वर्ना रास्ता. अगर मंजिल नहीं तो रास्ता भी नहीं. रास्ता नहीं तो सफर कैसी. सफर नहीं होने का मतलब तो आप समझ सकती हैं-ठहर जाना होता है. और जहां ठहर गए, समझिए वहीं मर गए- जिंदगी से नाता खत्म. उठिए, अपनी आंखे खोलने से पहले एक मंजिल तय कीजिए, और पाने की तमन्ना छोड़ दीजिए.
सफर शुरू कीजिए!
उसे तब तक जुड़ना ही कहते हैं, जब तक दो चीजें एक दूसरे में समा न जाएं. और गांठ इसी जुड़ाव को कहते हैं- जो अक्सर बांधी गई होती है।
जो अपने आप बंध जाए- वो गांठ नहीं- इसी बंधन से तो एकाकार होने का रास्ता शुरू होता है। तब किसी गांठ की दरकार नहीं होती- दो गज (1+1)कपड़े मिलकर एक चादर बन जाते हैं- और फिर एकाकार होकर चांदनी रात की मद्धम लहरों में लहराते हैं.
चाहत तो ऐसी है, लेकिन कहां- वो गांठ कपड़े का मर्म ही नहीं समझता।
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