चल निकला जूते का कारोबार


जूते के प्रति आदमी की संवेदनशीलता को देखकर तो यही लगता है कि उत्पत्ति के समय से ही जूता एक एक जरूरी सामान बन गया होगा- आखिर रास्ते के कंकड़ पत्थरों से रक्षा, ठोकरों से राहत जूते के सिवा और कौन दे सकता है। कहना नहीं होगा कि समय के साथ जूते की स्तर भी परिष्कृत होता गया....लेकिन मतलब वही रहा- जूता पड़ जाए... तो समझ लीजिए- पीठ पर पड़े तो धुनाई, सर पर पड़े तो जगहंसाई।

पहनने में शानदार, मारने में मजेदार अपने दोनों मतलब के साथ जूता एक ग्लोबल प्रोडक्ट है, लेकिन इसका बड़ी तीव्र अनुभूति हुई एक विज्ञापन को देखकर, जो एक राष्ट्रीय अखबार के पूरे फ्रंट पेज के खबरों पर अपने आकर्षक डिजाइन में हावी था। कहीं कोई खबर नहीं, सिर्फ जूते ही जूते। ऐसा विज्ञापन कोई पहली बार नहीं छपा, लेकिन जूतों के बीच खबरों का गायब होना- पल भर के लिए हंसी छूट गई. विचारों पर जूते का दूसरा मतलब हावी हो गया. मुंह से बरबस ही निकल पड़ा- ये देखो जूते का कमाल.

यकीनन, इस विज्ञापन को देखकर औरों को भी यही लगा होगा- जरूर याद आई होगी बुश के बाद चिदंबरम और नवीन जिंदल पर पड़े जूते की और यकीनन, विज्ञापन देने वाले ने भी यही सोचा होगा, हालिया घटनाओं के साथ उसकी देशी कंपनी का नाम पढ़ने वालों के जेहन में मल्टीनेशनल ब्रांड की तरह हमेशा के लिए बस जाएगा। और संपादक जी ने भी यही सोचा होगा- जूते की खबर छापने से बढ़िया है- जूते का ऐड छाप दो. चार पैसे मिल जाएंगे- तो मालिक की भी चांदी हो जाएगी. आखिर जूते को कैश करने का इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता है?

जूता जब खबरों का प्रायोजक बन जाए, तो पॉपुलरिटी स्टंट का नया फार्मूला अपने आप इजाद हो जाता है। एक ऐसा आइडिया, जो हमेशा के लिए जिंदगी बदल सकता है। ऐसे में ये संभावना ये ज्यादा हो जाती है- कि कल को जूता पड़ने की क्रिया भी प्रायोजित हो जाए. जिसे चाहिए होगी पॉपुलॉरिटी- उठा लेगा भाड़े पर किसी को फेंकने के लिए. कैमरे तैमरे तो होंगे ही, बस अपना 'रियेक्शन टाइट रखने' की जरूरत रहेगी. जूता पड़ने पर मुस्कराना होगा, कूल डाउन...कूल डाउन...टेक इट इजी...जैसे जुमले लाल हुए चेहरे के साथ उछालने होंगे. कैमरे के साथ एक तीर से दो निशाने सधेंगे- जूता फेंकने वाला और खाने वाला दोनों बन जाएंगे महान

इस महानता का बखान करने के लिए- अखबारों में अच्छी हेडिंग, टीवी पर ऐरो, सर्किल और अनुप्रासिक टेक्स्ट मौजूद होंगे ही. अगर एक जूता खाने से इतनी पॉपुलारिटी मिलती हो, तो बुरा क्या है, अगर हैसियत बड़ी है- तो जूता कंपनी भी घटना को प्रायोजित करने को राजी हो जाएगी. आप इसके लिए मुंतदर अल जैदी के फेंके जूते की अरब जगत में बढ़ी बिक्री का आंकड़ा पेश कर सकते हैं. जब अखबार को सर्कुलेशन और टीवी को टीआरपी से विज्ञापन मिल सकते हैं, तो आपको तो इस आंकड़े के बाद अच्छे प्रायोजक मिल जाएंगे. हर लिहाज से सस्ता सुंदर और टिकाऊ फार्मूला लेकर आया है ये जूता.

टिप्पणियाँ

अनिल कान्त ने कहा…
भाई आजकल तो हर जुबान पर जूता है .....पहनना कम खाना ज्यादा हो गया है :)

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
ज्यादा जूताखोरी हुई तो खबर से गायब भी हो जाएंगे ये जूताखोर...

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