'महुआ' का मतलब

आपने ठीक ही समझा है, मेरा इशारा एक उस नए चैनल की तरफ है, आज घर घर में दिख रहा है. लेकिन असल में ये चैनल तो एक बहाना है- ‘महुआ’ का मतलब समझने का. कोई भी ठीक ठीक नहीं कह सकता, इस ‘केबल एज’ में कितनों को पता होगा महुआ का मतलब. क्या है महुआ, आज अगर ये एक भाषा का बिम्ब बनने में कामयाब हुआ है तो इसकी विडंबना क्या है.

महुआ एक मटमैली भाषा का वो मुरझाया हुआ फल है, जो अपने ही रस में भस्म होने को मजबूर है. शहद जैसी होती है मिठास, तभी इसे मधु के समानांतर महु शब्द मिला, उत्पति के लिहाज से एक साउंड है. इस साउंड में एक पूरी संस्कृति का मादक शोरगुल छिपा है. मादकता महुआ का एक कैरेक्टर है, इसकी मिठास में गजब की मादकता है, वो मादकता जिससे एक पूरे मौसम की पहचान बनती है. वो मादकता, जिसकी वजह से फाल्गुन की मस्ती छाती है.

इस लिहाज से महुआ एक शुरूआत का बीज है. फाल्गुन महीने में जब पेड़ों पर नए पत्ते लगते हैं, महुए का पेड़ कोचियाता है, छोटे छोटे पीले फलों से पूरा पेड़ गदरा जाता है. ये फल दिन में कभी नहीं टपकता, पूरी रात ये मलय पर्वत की मादक हवाओं में अठखेलियां करता है, रंगरेलिया करता है, और सुहब ब्रह्म मुहूर्त में झड़ना शुरू होता है. सुबह सुबह आप महुए के पेड़ के नीचे आप जाईए, छोटे छोटे पीले फलों की बरसात हुई रहती है. नथुनों में दूर से ही इसकी धमक मिल जाती है, आज महुआ खूब ‘चूआ’ है.

फल इतने रसदार होते हैं कि छूने भर से रस टपकने लगे. इसे चुनने की जिम्मेदारी पारंपरिक रूप से दादियों और पोतों की रही है. दादी अपने पोते पोतियों को जगाती है और उनके नन्हे ङाथों में छोटी छोटी मौनियां (बुनी हुई डलिया) देकर निकल पड़ती है अपने दादा परदादा के लगाए हुए पेड़ के पास. बच्चे कूद कूद कर महुआ चुनते हैं. मोनियों का महुआ से भर जाना उनके लिए जिंदगी की पहली उपलब्धि होती है, सबसे पहले अपनी डलिया भरने की कोशिश में जिंदगी की पहली प्रतियोगिता से गुजरते हैं

देखते ही देखते खांचिया भर जाती है महुए के फलों से. घर ले जाकर दादियां महुआ को बड़ी जतन से धूप में सुखाती है, सूख जाने के बाद महुआ किसमिस की तरह हो जाता है. लेकिन महुआ की किस्मत किसमिस जैसी कहां.

दादी इसे संजोकर जरूर रखती है. कभी कभार इसके रेशे जैसे बीज साफकर दूध में फूलाकर कर छांछ बनाती है, कहती है इसके खाने जवानी लौट आती है. खासकर महिलाओं के लिए वरदान है महिला. बांझ औरतों के लिए महुए के पेड़ के गुदे (छिलके) को दूब की घास और कुछ दूसरी जड़ियों के साथ औंट कर (गाढ़ा उबाल कर) सीरप बनाती है. आपको जानकर हैरानी होगी इस काढ़े के सेवन से कई घरों में किलकारियां गूंज गईं. 35-40 साल की औरत का भी रूप ऐसे निखर जाता है, जैसे वो 20-22 की हो. इसका इस्तेमाल भैंसों के दाना पानी में भी होता है, जो भैंस 5-7 बरस की हो जाने पर बच्चे पैदा नहीं करती उसे आषाढ के महीने में महुआ खिलाने से कार्तिक महीने तक वो उम्मीद से हो जाती है.

लेकिन आज तक किसी ने महुआ को समझने की कोशिश नहीं की, इसके औषधिय गुणओं को परखने की कोशिश की गई, क्या पता ये पूरब का किसमिस हो बन जाता, हां देसी शराब का श्रोत जरूर बना दिया गया, क्योंकि इसकी मादकता पहनी नजर में ही नशे का एहसास कराती है. और एक बार महुआ नशे की कड़ाही में चढ़ा, तो फिर निठल्लों का साजो सामान बन गया, सभ्यता से कोसों दूर खिसकता गया, पढ़े लिखों को इसकी आमद से ही चिढ़ होने लगी...आज शायद ही किसी मध्यवर्गीय घर में आपको महुआ का दर्शन हो.

यहीं से महुआ बिम्ब बनता है उस पुरबिया भाषा का, जिसकी लय में मोहब्बत की मिठास है. जिसकी डिक्शनरी एक से एक मादक शब्दों से भरी पड़ी है, लेकिन उसका विकास ध्वनि से ज्यादा स्तर तक नहीं हुआ. महुआ की तरह भोजपुरी से भी वही खिलवाड़ हुआ. चेतना के होते हुए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव औऱ इसके चलते बढ़ते निठल्लेपन ने भोजपुरी को निहत्था कर दिया, रंडियों की भाषा बन गई भोजपुरी, सीडी और वीसीडी कल्चर के साथ इसमें चोली और पेटीकोट के पीछे छिपे शब्द मुखर हो गए. भाषा के साथ जुड़े संस्कार और आदि भावनाएं गर्त में समाती गई और भोजपुरी एक अश्लील भाषा में तब्दील होती गई,

ये तो समस्या का एक सिरा है, इसके बाद बाद जब ग्लोबल कल्चर में पहचान की बात आई तो भाषा के साथ पूरे पुरबिया इलाके के सामने शर्मिंदगी की स्थिति सामने है. आधुनिक समाज में इसके अल्हढ़ टोन की हंसी उड़ाई जाने लगी. इसे बुड़बक समाज का प्रतीक करार दे दिया गया. कभी कोशिश ही नहीं हुई इस प्रतीक से मुक्ति दिलाने की. दिल में कसक सबके है, लेकिन एकजुटता की कमी हर कोशिश नाकाम कर गई

इस भाषा का पहला चैनल होने के नाते ‘महुआ’ स्वाभाविक तौर पर एक आस जगाता है, आस इसलिए, क्योंकि चेतना पर पड़ी राख अब चिंगारी के आगे हवा हो रही है, आंख खोलकर देखिए, अपनी भाषा में चीजें कितनी अच्छी लगती हैं, स्वाभाविक दिखती है. अब कोशिश ये होनी चाहिए कि ये चिंगारी ज्वाला बन जाए, नहीं तो ये आग अगर बुझ गई, तो फिर हमेशा हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा महुआ का संस्कार.

टिप्पणियाँ

दीपक बरनवाल ने कहा…
bahut achchhe bhaiya

mahua television ke bahane ghar ke un bachpan ke dino ki yaad dee

jiyo binod bhai
जानदार वि‍श्‍लेषण के साथ रोचक जानकारी।
Unknown ने कहा…
shabash koi to maati ka laal dikha aaj ki is galakaat pratiyogita k zamane me.
aapko is lekh k liye bahoot bahoot badhai.
bhojpuri aapke hamesha yaad rakhi, humar waada huwe aapse.
विनोद भाई साहब, आपने तो दिल जीत लिया, खासकर आपने महुआ का जो वर्णन किया है वह तो काबिलेतारिफ ही नहीं मैं आपके लेखन का मुरीद भी हो गया हूं, आज मैं भटकता हुआ आपके ब्लॉग पर पहुंच गया.. लेकिन इसमें महुआ के मिठास में जो आनंद मिला शायद वह महुआ के रस में भी ना हो... बस अब चाहूंगा कि अपने अंदर छिपी लेखन को बार बार लिखते रहें ताकि हमलोग उसका रसपान करते रहें... जाते-जाते माटी के लाल को एक बार और सलाम करना चाहता हूं
बेनामी ने कहा…
GREAT COMMITMENT!ACHHA VISLESAN AAP KI EK EK BAAT SE SAHMAT HAIN IS VISAY KO CHUNNE KE LIYE THANKS.

TANWEER
Unknown ने कहा…
राष्ट्रिय नागरिक बन्धुओं मोदीजी सत्ता वापिस जब ही आयेंगे जब सरे नागरिक मिलकर ज्यादा से ज्यादा पेड़ वृक्ष उगाने का संकल्प लेंगे नहीं तो भ्रष्टाचारी महगाई महंगाई चिल्लाकर ईश्वरीय शक्ति मोदीजी को पछाड़ लगाने की भरपूर कोशिश करेंगे बन्धुओं पाखंडियों को दान देने की बजाय किसी गरीब किशान भाई को खेती के लिए दान करे या दान करने की सलाह देवें इससे देश में खुशहाली आएगी पाखंडियों को दान देते है तो पता नहीं पैसा कहाँ जाता है और पाखंडी एसोआराम करते है और इधर किशान भाई इज्जत के खातिर फांसी लगाने पर मजबूर होना पड़ता है पाखंडी तरह तरह के तंत्र बताता है इनके झासें में न आ कर भूमि माता धरती माता के लिए हम वृक्षरोपण तो कर सकते है फिर किशान भाइयों को कर्जों में नहीं डूबना पड़ेगा जमीने बिकना बंद हो जाएगी
Unknown ने कहा…
आदरणीय भारत के राष्ट्रिय नागरिक महोदय व् नागरिक बन्धुओं हमारे भरत के नागरिकों पर राज करने वाले राष्ट्रिय नागरिकों से विनम्र अपील हमारे देश का कोई भी प्रधानमंत्री अगर किसी राज्य में बीस करोड़ की मदद देने की घोषणा करते है यह तो अच्चा है परन्तु मान लो की किसी राज्य की जनता पेड़ के पत्तों के पत्तल दोने का व्यापर करने में सक्षम है तो प्रधानमन्त्री जी को यह घोषणा करने की करपा करनी चाहिए की केन्द्र सर्कार दस करोड़ नगद देगे और दस करोड़ के सालाना राज्य की जनता से पेड़ के पत्तों के पत्तल दोने खरीदेंगे फिर देश की जनता को भोज के लिए हर गैस सरेण्डर के साथ मुफ्त देंगे जो देश की जनता जल पानी बर्बादी से जानलेवा मलेरिया व जल पानी बर्बादी से स्टील के बर्तन व् स्टील के ठीकरे धोनें पर चमड़ी कटने की बीमारी न हो जो जितना आमिर आदमी उतना बरबाद क्यों उसका इलाज ही नहीं होता स्टील के बर्तन को धोने वाले की परेशानी दूर बर्तन धोने वाले को रोज लगभग दोनों समय 150 ठकरे धोने से निजात मिलेगी स्टील के बरतन को धोने से जो जल बहता है जल बहने से मलेरिया के मछरों का आतंक मिट सकता है मलेरिया की बिमारियों पर परिवार बरबाद होने में कमी आएगी दवाइयों में शासनात्मक कमीशन बाजी व घोटाले बाजी जो देश को बरबाद करने में तुली हुई ह उसमें कमी आ सकती है यह योजना हर परिवार के पास पहुचती है तो हर परिवार ६ सदस्य ४० हजार रूपये की बचत व सरकार को मलेरिया के लिए परेशानी में कमी आएगी मानव व जानवरों को एलरजी नमक बिमारियों से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी और किसी राज्य का मुख्यमंत्री जो अपने राज्य को मेहनतकस व महत्वाकान्सी आत्म शक्तिशाली बनाना चाहता है तो अपनी राज्य की जनता को पेड़ के पत्तों के पत्तल दोने का व्यापर करवाने व पेड़ के पत्तों के पत्तल दोने में खाने का प्रचार होना चाहिए सरकारें जनता नो पेड़ के पत्तों के पत्तल दोने का व्यापर का अनुदान देगी तो उस राज्य में हरियाली की कमी कभी नहीं आएगी
Unknown ने कहा…
Yah mahua sabse pahle khaha paida hota hai

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