एक बार फिर मरी आरुषि!


एक बार फिर से पूछ रहे हैं बच्चे- क्या हुआ आरुषि का, पापा...?
इशारा तो आप समझ ही गए होंगे, बच्चे क्यों पूछ रहे हैं ये सवाल. लेकिन बड़े क्या जवाब दें- एक बार फिर क्यों मरी आरुषि, ये तो गहरी विवेचना का विषय है कि दोबारा क्यों मार दी गई आरुषि, लेकिन एक सवाल का जवाब मिलते ही माजरा कुछ हद तक साफ हो जाता है- कैसे दोबारा मरी आरुषि- आप सबने देखा- एक बार उसे आसमान पर उठाया, देर तक झुलाया...और फिर अचानक, आसमान से पटक दिया. पटका भी ऐसा कि हकीकत के धरातल पर उसकी खबर क्या, सरगर्मी तक नहीं बाकी.

जब दिखाया/छपा तो क्या खूब दिखाया/छापा, जो नहीं दिखाना/छापना था वो भी दिखाया/छापा. हर खबर के साथ बेचारी को नई मौत के साथ मारा. अंधेरे में तीर मार मार कर कई सारी थ्योरियां निकाली, लेकिन सब गुड़ गोबर...सब सड़ी हुई. चैनलों को टीआरपी अच्छी हासिल हुई, तो अखबारों को, खासकर दिल्ली के दो टेबलायड्स का सर्कुलेशन 'हाइट' पर पहुंच गया, लोग सच जानना चाहते थे, इसलिए देखते/पढ़ते थे- आरुषि को वाकई किसने मारा, क्या हुआ था उस रात उसके साथ, लेकिन ये सवाल आज तक अधर में है, अब जबकि आरुषि की आत्मा को मीडिया की सबसे ज्यादा जरुरत है, उसे नहीं लगता आरुषि के इंसाफ से कोई वास्ता रह गया है. .

लगता तो यही है, सारे मसाले चूस चुके मीडिया वाले- मर्डर, मिस्ट्री, सेक्स,एक्सट्रा-मेरिटल अफेयर, रेप... आपको याद होगी- मासूम के निहायत ही निजी मैसेज को भी क्या मिर्च मसाला लगाकर परोसा, ऐसी थी आरुषि, वैसी थी आरुषि...बकायदा री-क्रियेशन कर दिखाया गया, ऐसे हुआ कत्ल, ऐसे हुआ रेप...एक अभियान छेड़ रखा था, लेकिन अब क्या...?

अब तो सीएफएसएल से तमाम रिपोर्ट भी आ गई होगी, सीबीआई के तमाम दावों की सच्चाई सामने आ चुकी होगी, उसने किन सबूतों और किस बिना पर किसको बरी किया, किसको गुनहगार ठहराया, कैसे उन्हें कोर्ट में दोषी ठहराएगी, दो महीने तक आखिर उसने क्या किया. ये सारे सवाल अहम है. लेकिन इसका जिक्र न तो सिंगल कॉलम/न टिकर कहीं नहीं हैं. जाने उस मासूम के सहारे समाज का कौन सा सच दिखाना चाहता था मीडिया, जिसके पर्दाफाश से पहले ही उसने चुप्पी साध ली. जेल से छूटने के बाद पिता सुकून से घर में बैठे हैं, सीबीआई सुस्ता रही है, और आरोपी (कृष्णा, राजकुमार, और विजय) जेल में अपने निर्दोष होने का राग अलाप रहे हैं. कहानी अभी खत्म नहीं हुई है,

माफ कीजिएगा, मैं भी अपनी बात कुछ सवालों के साथ ही खत्म कर रहा हूं- जवाब मेरे पास नहीं, एक अपील जरूर है- एक बार फिर पीछे पड़ो बंधुओं, टीआरपी नहीं, इस बार आरुषि के इंसाफ के लिए- दिन में 10 मिनट के लिए ही सही. आपकी चुप्पी की वजह से आरुषि के गुनहागार सुकून की सांस ले रहे हैं

इतना तो हक बनता ही है- उस दुलारी का, जो खबरों की जान बन गई थी.

टिप्पणियाँ

vipinkizindagi ने कहा…
bahut sahi likha hai aapne ...
achchi post....
Udan Tashtari ने कहा…
बिल्कुल सहमत-सब तरफ इतनी चुप्पी कैसे हो गई एकाएक-बिना निष्कर्ष के.

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