इतने अरसा बाद अपने पेज़ पर लौटना!
अरसा बाद आकर यहां ऐसा लगा
जैसे कोई अक्षर मेरा इंतजार कर रहा हो
कोई सवाल मुझे निहार रहा हो
मुझसे जवाब मांग रहा हो...
तुम्हें खुद भी याद है कि नहीं, आखिरी बार यहां कब आए थे. क्या वादा कर के गए थे. अबकी बार आऊंगा तो तहेदिल की सुनाउंगा...
बेखुदी की किन गलियों में गुम हो गए तुम, कि याद तुम्हें इतनी भी नहीं रही
अब आए हो तो देखो...
तुम्हारी खामोशी मुझ अक्षर को कितनी शब्द रहित बना गई है, निःशब्द कर गई है...
जताते तो बहुत प्यार थे तुम, अब इतनी उदासी कहां से बटोर लाए हो अपने चेहरे पर...
कि मुझे मेरे प्यार की एक हल्की सी शिकन तक नहीं दिखाई देती...
तुम अब भी चुप हो...
हां, मैं अब भी चुप हूं. पढ़ रहा हूं पुरानी सी पड़ चुकी पंक्तियों को. जाने क्यों इतनी पराई लग रही हैं सारी की सारी. कुछ याद भी दिला रही है धुंधली सी. अपने ही शब्दों से बुना सीन जाने क्यों बेगाना लग रहा है. पढ़कर रोम रोम सिहर रहा है. जैसे कोई सोई हुई संवेदना जग रही है. एक सिहरन सी हो रही है- अपने बारे में पुर्नाकार लेते सुखद एहसासों के साथ.
हां, मैं चुप हूं, क्योंकि अरसा बाद लौटा हुं अपने बोए शब्दों के बीच, अपने अहाते में अंकुराते हुए, आकार लेते हुए पौधों के बीच. बस अभी मैं उन्हें निहार रहा हूं.
(चित्र- वेब सर्च)
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