ऐसे में काहे का पत्रकार!


कई महीने की खामोशी में मैंने यही पाया. मैं संभवतः पत्रकार नहीं रहा, एक राइटर भर रह गया हूं. खबरों की बदलती परिभाषा और सच की बदरंग हुई तस्वीर को अपने सीने में जज्ब करता हुआ एक लेखक मात्र. मेरी भाषा में कितनी आसानी से पैठ बना चुके हैं डराने वाले, दहलाने वाले, रुलाने वाले, हंसाने वाले, सावधान करने वाले, किसी का बखान करने वाले बहुत सारे अतिरंजित शब्द. ये खबरों की बिकाऊ चासनी के लिए जरुरी हैं. हाई-डेसिबल ड्रामा तैयार करने के लिए जरूरी इनग्रीडियंट्स...

मैं ये नहीं कहूंगा, कि आपलोगों से शेयर किए आखिरी पोस्ट के बाद से क्या मैं इसी बात पर आत्ममंथन कर रहा था. बल्कि अनिर्णयता के इस दौर मैं मैं खुद बखुद 'रेट्रो मोड' में चला गया. सोचने लगा कि आखिर सच की आवाज बुलंद करने पर भी कैसे आप पर पक्षपात का आरोप लगता है. देश की माननीय संसद में आपको 'डिब्बेवाला' बुलाया जाता है. अदालत से लेकर अपराधी और सरकार तक हमारी सक्रियता के लिए 'मीडिया ट्रायल' जैसा सब्जेक्टिव टर्म इस्तेमाल करती है. कोई बताएगा- ऐसे शब्दों के खिलाफ मीडिया वाले किस संस्था के पास अपना 'प्रीविलेज मोशन' लाएं?

ऐसी नियति के साथ पत्रकार कहलाना क्या शोभा देता हैं? जनता में पहले से ही ये संदेशा गया है कि हम टीवी न्यूज वाले जमीनी मुद्दों के मुकाबले आकाश-पाताल की सुर्खियां बनाने में ज्यादा सुख महसूस करने लगे हैं. गरीब-गुरबा से जुड़ी खबरों को 'लो-प्रोफाइल' कह कर डस्टबीन में डालने की आदत लत में बदल गई है. खैर, ये बात तो मैं भी कहूंगा कि अगर जनता हमारे बारे में ऐसा सोचती है तो ये पूरा सच नहीं. अपनी जमीन से जुड़ी खबरों से मुंह मोड़ना इतना आसान नहीं है. उन्हें दरकिनार करना आसान नहीं है. फिर भी ऐसा क्यों होता है, ये समझने के लिए हमारे पेशे का पूरा खाका खींचना होगा, उसे समझना होगा.

इस काम के लिए अभी तो फुरसत नहीं. आपसे दोबारा जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं. आपसे कुछ बांटना चाहते हैं. अगर पिछली स्थिति को एक लाइन में समझे तो हमारी दुर्गति की 'टोटल वजह' है कि हमारी आवाज औरों के लिए तो हैं, लेकिन हमारे लिए नहीं. दूसरों के लिए तो हम फिर भी आवाज उठा लेते हैं, अपने लिए तो चूं तक नहीं कर पाते (या कर नहीं सकते?)

इस पेशे में न जाने कितने ऐसे और लोग होंगे, जो मेरी तरह सोचते हैं, ठीक ठीक नहीं कह सकता. बहुत हद तक इसलिए भी कि ऐसे निष्कर्ष वाला सर्वे करने की हिम्मत नहीं किसी में. इसलिए मसले को इशारे में ही जिंदा रहने दें. बात निकलेगी तो वैसे भी दूर तलक जाएगी...

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