ज्योति दा, जवाब भी तो देते जाते!


"तुम खाना खा रहे हो और तुम्हारी थाली पर कोई लात मार दे, तो क्या करोगे?
इस सवाल का जवाब ईमानदारी से दो, वामपंथ का मूलमंत्र तुम्हें समझ आ जाएगा"


19 साल बाद अचानक गूंज पड़े ज्योति दा के वो अलफाज, जो उन्होंने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था. वो कॉलेज के दिन थे, बीए में पढ़ते थे, जब ज्योति दा 1991 के चुनाव अभियान में बिहार आए थे.

उस दौर में गजब की थी उनके चेहरे पर चमक. बौद्धिकता उनके पूरे व्यक्तित्व से टपकती थी, उजले उजले बाल, सफेद धोती-कुर्ता, मटमैटले खादी की जैकेट और मोटे वाला चश्मा- भीड़ में अगर न भी पहचाते, तो कह देते- यही ज्योति दा हैं.

चुनावी सभा के दौरान उनसे मिलना हुआ था. तब बिहार में आईपीएफ का उदय हो रहा था, वामपंथी राजनीति हिंसा का रूप ले रही थी. ये बहस का बड़ा मुद्दा था. हिम्मत तो नहीं हो रही थी, लेकिन प्रश्न को बाल-सुलभ बना कर पूछ लिया था वामपंथी राजनीति का मतलब...

इस सवाल का जवाब जिस सरलता से ज्योति दा ने दिया, वो आज भी गूंजता है. 'बाजार के बीचों बीच' बस जाने के बाद ये सवाल और भी सालता है, और जवाब उतना ही बेचैन करता है...

सच कहें, तो पेट ने इस सवाल पर कभी सोचने का मौका ही नहीं दिया, और न कभी ज्योति दा से मिलना हुआ- बस अपनी 'थाली' बचाते रह गए...

वो एक रात की गर्दिश में इतना हार गया
लिबास पहने रहा और बदन उतार गया

टिप्पणियाँ

दीपक 'मशाल' ने कहा…
Achchha sansmaran... aur aapne meri pasandeeda gazal laga rakhi hai 'lab pe' salon baad sunane ke liye shukriya bhai...
Jai Hind....
बेनामी ने कहा…
गज़ब है भाई....बहुत अच्छा....
a ने कहा…
गज़ब है भाई....बहुत अच्छा

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