लो, अब झेलो 'बैताल बे-अदब'* को...




जब से हुए हैं जिल्ल-ए-सुब्हानी मेरे खिलाफ
मुंसिफ मेरे खिलाफ, गवाही मेरे खिलाफ
मेरी तो एक बात भी पहुंची न उसके पास
उसने तो जो सुना, सुना ही मेरे खिलाफ
इस बार आसमां वाले भी मेरे खिलाफ हैं
ये शहरवाले तो पहले से ही थे खिलाफ


हमारी लेखनी तो आपके लिए लिजलिजी ही साबित हुई, लीजिए, अब झेलिए इस बेकाबू बैताल को.

भाई जान, दोस्त बन गए हैं, दफ्तर में बगल की सीट पर बैठते बैठते. तुलसी रजनीगंधा खाने वाली 'बुर्जुआ जमात' से ताल्लुक बताते हैं. लीकर नहीं, कभी कभार बीयर पी लेते हैं. सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाते, खैनी कभी कभार दाब लेते हैं.

लखनऊ के रहने वाले हैं, इससे ज्यादा मैं उनके बारे में बताऊ, ये उनको गवारा नहीं. सो परिचय इतने ही तक. एक खासियत है, जो मैं आपको खासतौर पर बताना चाहुंगा- मियां बात-बात में ऐसा वजनदार शेर मारते हैं, कि हिलाकर रख देते हैं. सुनकर दिल इतना बाग बाग हो जाता है कि मैं कई बार कह बैठता हूं-
'मियां, जिस दिन अकबर जैसी हैसियत हुई, आपको दरबार का रत्न बना कर रख लेंगे.

ऐसे 'रिटर्न्स' पर भाई की घनी मूछों के बीच से फू'ता ठहाका क्या नवाबी होता है. अक्सर 'शराफत की चुप्पी' ओढे रहते हैं, लेकिन खबर की मार पर इतने भद्दे तरीके से बिलबिलाते हैं, कि पूरा चोला गंदा कर देते हैं- बड़ा करारा करंट(सवाल) मारता है भाई- मुंबई हमले की बरसी पर तो जैसे हमलावर ही हो गए-

जरा मुजाहिरा किजिए...

'कुमार साहब, मैं तो 'हमला' हो गया, हमला देखते देखते 12 महीने के पेट से हो गया....'दफ्तर से निकलते ही भाईजान फट पड़े. लग गया, बेटा आज तो चाय की दुकान पर बवाल हुआ. मैंने पहले ही संभालने की कोशिश की-

26 नवंबर पर कई चीजें अच्छी हुईं. बहादुरों को टीवी के जरिए देश ने सलाम किया. एक साल बाद के फर्क का अंदाजा हुआ....

लेकिन भाई जान तो अलग ही मूड में थे-
लेकिन जो भी हुआ वो टीवी पर ही हुआ. वो भी हमले को बेशर्मी से बेचने की होड़ के साथ....

इतना कहने के साथ ही भाई साहब 'हेडर' और 'प्वाइंटर' के साथ 'चीर फाड़' करने लगे

ये बेचने की होड़ नहीं तो क्या थी?
जो तारीख(26/11) से तीन दिन पहले ही हमले का 'रीक्रियेशन' दिखने लगा, और तारीख आने तक हमला इतनी बार रिपीट हुआ कि आंखे एक साल पहले हमले के खून से भर गईं.
तारीख के मुताबिक हमला आज भी जारी था, कल भी और परसों भी जारी रहने वाला है, लेकिन तारीख खत्म होते होते हाथी के पेट में गुम हो गया जज्बा.

ये टीवी का हव्वा नहीं तो क्या था?
किसी ने फिल्म बनाई, तो किसी ने डॉक्यूमेंट्री तो किसी ने 'स्पेशल'. किसी ने एलबम बेचा, तो किसी ने शॉर्ट फिल्म बेच डाली(एक घंटे की फिल्म 10 ब्रेक के साथ) अगर ये मौका इतना ही बड़ा था देश के लिए, तो प्रधानमंत्री ने पहली बरसी को इतना सीरियसली क्यों नहीं लिया? ऐसा होता तो वो अमेरिका में दावत उड़ा रहे होते? ऐसा नहीं कि उनका दौरा अचानक हुआ होगा. महीने भर पहले तो प्लान हुआ ही होगा. फिर इतने बड़े मौके पर विदेश क्यों गए. इस पर मीडिया की मौन समहति देखिए. अपनी धुन में किसी को उनका देश में न होना खटका तक नहीं. मनमोहन पर इतना मोहित है मीडिया कि कोई अंजान दंपति घुसा ओबामा की दावत में और देश में हेडलाइन बनी- पीएम की सुरक्षा में चूक!

भला ऐसी भी देशभक्ति होती है, भला ऐसा भी कहीं 'एहतियात' होता है?
कल तक लाचार थीं खुफिया एजेंसियां, सुरक्षा एजेंसियां भी निहत्थी थीं कल तक, सियासतदां निठल्ले थे, एक दिन में इतने 'जज्बेदार' कहां से हो गए
ये आतंकवाद के खिलाफ एकजुट दिखने की औपचारिकता नहीं थी तो क्या थी?
जो हमले की विभत्स तस्वीरो को हू-ब-हू दिखाने की होड़ में बुनियादी बातें 'खूनी कालीन' के नीचे दबा दी गईं. नकली किरदारों और 'फर्जी फायरिंग' के शोर में गुम हो गया वो जज्बा....

मैंने बीच में रोका, भाई बात बड़ा बवाली कर रहे हो, चुप रहो, हिंदी से अंग्रेस तक कहीं जगह नहीं मिलेगी. चुप करो. इस पर वो आहिस्ता तो हुए लेकिन शोर भुनभुनाहट में बदल गया.

अब यार, साले लोग, कमीशन के चक्कर में पीड़ितों का मुआवजा तक रोके हुए हैं, और हम उनके घड़ियाली आंसू दिखाने को मजबूर हैं. वो पाटील बार बार गृहमंत्री बन जाता है, सियासत की सौदेबाजी पर ढंग से एक सवाल भी नहीं खड़ा कर पाते.
संसद में सवाल उठा भी तो, खबरों में सदन में दो मिनट की चुप्पी दिखाई गई. दाब दी गई वो खबर, कि आज तक कितनों को मुआवजा मिला और कितनों का दाब दिया गया. ऐसा लग रहा हो, मुंबई पर हमला हमला नहीं, मुफ्त का एडवेंचरस माल हो, जितना चाहो जिस एंगल से चाहो, दिखाते रहो. ये खबर अभियान बनने लायक थी...एक आध अंग्रेजी चैनलों पर दिखा भी, तो कुछ उखड़ा नहीं....

अरे ठीक है, रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं, सिर्फ इमोशनल-इमोशनल ही खेलना है, तो ढंग से खेलो. दिन भर कसाब कसाब चिल्लाते रहते हो, कुछ पता भी है, कसाब के 9 साथी कहां हैं, उनका क्या हुआ. ससूरों की लाश अब तक सड़ रही है. केमिकल के साथ जली भुनी लाश कितने तक बची रहती. अस्पताल की मोर्चरी में सड़ रही है. सालों को दो गज जमीन नसीब नहीं हो रही है. देश के मुसलमानों ने कह दिया है, अपने वतन की धरती पर दुश्मनों के लिए कोई जगह नहीं. कोई अपने इलाके के कब्रिस्तान में उन्हें जगह देने को तैयार नहीं. कोर्ट से आदेश निकल चुका है. लेकिन नहीं. ये कितनी बड़ी बात है कौमी एकता और एकजुटता के लिए. लेकिन हमें तो भैया कसाब को बोलता दिखाना है.

उफफफफफफफफफ...ये आदमी बेचैन कर देता है यार...

* भई जी हल्के में मत लीजिएगा स्टार को, ट्रेड मार्क है. अब बैताल बे-अदब नाम से मेरे ब्लॉग पर कॉलम लिखा करेंगे.

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