गर ये 'नशा' नहीं होता, ये 'नशेमन' नहीं होता...



नशा को मैंने 'नशेमन' शब्द से समझा था.

जी, बात हंसने लायक है, लेकिन बहुत पुरानी है, और आज ये 'नशीला' जिक्र इसलिए छिड़ गया, क्योंकि आज कोई नशे को नए रूप में परिभाषित कर गया

'पियक्कड़ों' (जो हर हाल में पहले पीने का जुगाड़ करते हैं) के रहते भला 'नशे' का मतलब कौन नहीं जानेगा समझेगा. मैं भी समझता था, लेकिन नशे का असर नहीं समझता था- कैसा होता है, क्या होता है, पीने के बाद क्या गुल खिलाता होगा. मतलब नशे का मीनिंग साफ था, लेकिन कोई तस्वीर नहीं बनी थी. वो बनी गुलजार के 'नशेमन' से.

पता नहीं, 'नशेमन' शब्द का इस्तेमाल कितने गानों, कितनी गजलों में हुआ होगा, एक फिल्म में तो शायर ने यहां तक कह दिया- अगर नशा नाम की कोई चीज होती तो शराब की बोतल नाचने लगती. मतलब अगर बोतल नहीं नाचती, तो समझिए- शराब में नशा नहीं, क्योंकि अगर होती तो बोतल भी नाचती. लेकिन फिल्म 'आंधी' के इस गाने में गजब का असर था-
पत्थर की हवेली को
शीशे के घरोंदों में
तिनके के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं...
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते
कुछ तेज कदम राहें...


इस गाने को हर बार सुनते हुए मन- 'नशेमन' पर रुकता था. 'नशा' शब्द की एक इमेज हर बार उभरती. बाकी शब्दों के मतलब और मायने समझे में आ गए, नशेमन का मतलब ये बना नशे में घुला मन. बड़ी शायराना सी तस्वीर उभरी 'नशे की'- आदमी नशे में भी कितना होश में होता है कि ऐसी सूफियाना से अहसास से गुजरता है- उसे अपनी जुबां से बयां करता है.

बाद में 'नशे' का मतलब (असर समेत) भी समझा और नशेमन का भी. लेकिन ये नशा एक बार फिर उलझा रहा है-
एक हमप्याला बंधू की दलील दी- बातचीत शराब पीने की तलब पर चल रही थी- कब होती है, क्यों होती है, होती ही क्यों है ऐसे मसलों पर.

अलग अलग दलीलें थी- हमारी उनकी (जैसे बहुतों की होती है, अपने अपने संदर्भ के मुताबिक). बातचीत उनके जुमले से खत्म हुई...
'भई ऐसा है, ये ऐसी शय है, जिसे पीने वाले खुशी में भी पीते हैं, मातम में भी पीते है, कुछ लोग इसे सच्चा साथी कहते हैं। लोग शराब की बात तो करते हैं, लेकिन नशे को भूल जाते हैं.
मैं पहली बार शराब और नशे पर अलग बयान सुन रहा था- इंटरेस्टिंग...

'भई, ये जो नशा फैक्टर है- वही पियक्कड़ और पीने वाले के बीच का फर्क है. जिन्हें टेस्ट से प्यार हो जाता है, दाल चावल की तरह मुंह लग जाता है, उनकी तो छुड़ानी मुश्किल. और जो थोड़ा- 'खुशनशा' करने के लिए पीते हैं, वो काबू करना जानते हैं' (गुलाबी खुमार, सफेद सुरूर और सुर्ख लाल नशा- भाई के मुताबिक नशे की ये तीन कैटिगरी होती है)
इसलिए 'टेस्ट' को मुंह न लगने दीजिए, और अगर करते हैं, तो हमेशा 'नशे की पहले कैटिगरी' पर बने रहिए. मैं ऐसा ही जीव हूं- जो चीज अगर शराब जितनी कड़वी और और उसे मुझे मेरा 'खुशनशा' नहीं मिलेगा, उसे मैं मुंह भी न लगाऊं!


इसी 'खुशनशा' के लिए दुनिया में शराब बनाई गई होगी, जहर मिलाने और चोरी छिपे बेचने और पीकर लड़खड़ाने और दूसरे की इज्जत पर हाथ डालने के लिए नहीं. नशें में (और से) खुश नहीं तो कुछ नहीं।

बात तार्किक थी- मैंने सोचा, क्यों न आपसे शेयर करूं...

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