कमिंग अप- 'पीली पड़ चुकी डायरी के पन्ने'

11 साल पहले की बात है। यही मार्च का महीना है, जब दिल्ली में 9 महीने बिताने के बाद घर लौटने की बारी आने वाली थी. फागुन की बेकाबू बयार में उजड़ा हुआ सा मन अजीब उलझन में फंसा हुआ था. नौ महीनों में कुछ ऐसा बैठ गया था जेहन के अंदर, जो घर लौटने की बेसब्री को बे-असर सा कर रहा था.

इस शहर ने भी कही न कहीं अपने से जोड़ लिया था। दिल्ली के तंग कमरे में गांव वो उजास याद धुंधली पड़ने लगी थी. वो सुस्त सुबह, वो सुनी-सी दोपहरी, मायूसी से भरा वो शाम का धुंधलका- जिनकी उबन ने शहर की भीड़ में धकेला था- भीड़ से निकलने की खुशी पर भारी पड़ रहे थे. जहां तक मुझे याद है इसका एहसास सर्दियों से ही होने लगा था. पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद शहर में ही नौकरी ढूंढे, या गांव जाकर मास्टर बन जाएं, इस दुविधा में देर तक तनी रहती थी रजाई. देर रात तक जलती रहती थी ट्यूबलाइट.

इन्हीं दिनों की एक डायरी हाथ लगी है, जिनके पन्नों पर दर्ज है उस समय का पूरा एहसास। इसे संयोग ही कह सकते हैं, कि जब किताबों के कबाड़ से हाथ लगी वो डायरी, मार्च महीने की मस्त बयार फिर से बेकाबू है. फैसला तो मैंने अपने दिल की सुनते हुए वापसी का कर लिया था, लेकिन 3 महीने के बेनतीजा संघर्ष ने फिर से दिखा दिया दिल्ली का रास्ता. वापस लौट गया मैं. लेकिन वापसी के बाद कई साल तक बनी रही वही दुविधा. नौकरी लग चुकी थी, लेकिन मन नहीं लगा था. पेट नौकरी से भरता रहा, लेकिन मन गांव की उन्हीं गलियों उलझा रहा.

देह और मन की यही उलझन बयां हुई है पुरानी डायरी के पन्नों में जो अब पीली पड़ चुके हैं। सोच रहा हूं, पीली पड़ चुकी डायरी के फटेहाल पन्नों को आपके सामने रखूं. आपसे पूछूं, क्या इनमें दर्ज हुई वो दुविधा, वो बेचैनी, वो तड़प सिर्फ मेरी है या आपकी भी?

देर बस अगली पोस्ट की है. उसके बाद हर रोज आप पढ़ सकते हैं- पीली पड़ चुकी डायरी का एक पन्ना.

टिप्पणियाँ

वो कल कब आएगा, जब पीली पड़ चुकी डायरी के पन्ने ब्लॉग पर दर्ज होंगे... बहरहाल जो बेचैनी आपकी है वो कमोबेस हर शख्स की है... इस कमबख्त नौकरी ने हमसे हमी को छीन लिया है... लेकिन किया क्या जाए?

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