शून्य का संवाद



शून्य किसे कहते हैं?
ये कोई वस्तु है या कोई पदार्थ
ठोस द्रव्य या वायु- हवा है पानी है क्या है ये शून्य?
ये किसका आकार है, किसका प्रकार है
क्या है ये नीले अंधेरे वाला स्याह मर्तबान।


दिखता तो है यही कि कोई देह नहीं इसकी
काया की छाया तक नहीं दिखाई देती, जब जिक्र में आता है शून्य
कोई आकार नहीं सूझता शून्य का, आभास भी नहीं होता इसकी परिधि का
फिर भी कैसे पसर जाता है पूरी फिजा में?
कैसे बेदखल कर देता है सुगबुगहाटों को
चुप कर देता है सरगोशियों को
समेट लेता है पूरी चहल पहल को

आखिर कितना विस्तृत हो सकता है एक निराकार का दामन
सुक्ष्म भी इतना है कि अंट जाता है दो शब्दों के नाममात्र अंतराल में
दो वाक्यों को विन्यास में
जुबान से टपकर ऐसे चिपक जाता है संवाद से कि मौन जाती है तमाम हरकतें
रुमानी स्पर्श की तरह नर्म हो जाते है तमाम ख्याल
जैसे उत्कर्ष के बाद शिथिल पड़ जाता है शरीर
आकार नहीं, प्रकार नहीं, देखने में साकार नहीं
फिर कैसा चमत्कार है शून्य?

इतना तो समझ नहीं पाते
फिर भी फिराक में रहते हैं चांद को हाथ लगाने की
अपना शून्य तो संभलता नहीं, औरों के शून्य पर राल टपकाते हैं

भरसक तांडव मचा रही है आदमी की जिंदगी में बाजार की मंदी!
रोज चौड़े होते जा रहे आसमान के छेद से उतर रहा है चांद का शून्य
उजास हो रहे हैं हमारे अपने आशियाने
विकराल होता जा रहा है देह और रूह का फासला

बेवजह नहीं, कि शून्य से अंट रही है, शून्य से बंट रही है
विचारों के ब्लैकहोल में गुम हो रही है खयालों की दुनिया

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
बहुत उम्दा!
admin ने कहा…
एक गम्भीर कविता, बधाई।
सरल, सामान्य ब्लॉग पर गम्भीर विमर्श देखकर अतीव प्रसन्नता हुई।

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