अगर आप ईश्वर को मानते हैं तो...

मानना उस अर्थ में नहीं, जैसा टीवी की खबरों में दिखाया जा रहा है- मंगल के दिन शनि का जन्मदिन मनाया जा रहा है, कुछ अबूझ तस्वीरों के जरिये ब्रह्मांड का रहस्य सुलझा लेने का दावा किया जा रहा है. और तो एक धुंधले सफेद साये को साक्षात ईश्वर का रूप बताया जा रहा है, गजब का कन्फर्मेशन है टीवी एंकर्स की भाषा में...!

निराधार...! बकवास...!! कोरा अंध-विश्वास...!!!
ग्रहों पर जीवन की तलाश अलग बात है, लेकिन ईश्वर की साक्षात तस्वीर पर मुहर? विज्ञान इसकी कतई इजाजत नहीं देता. वो चीजों के सापेक्ष संतुलन को समझता है, और जिस सीमा के बाद गणना शून्य के नीचे चली जाती है...वहां इनफिनिटी का मार्क लगा देता है. मतलब, जो दिख जाए, वो ईश्वर ही क्या. फिर तो वो संग्रहालय में कैद किया जाने वाला आइटम बन जाए. आदमी इतने सवाल कर बैठेगा- ये क्यों, वो क्यों, ये ऐसे क्यों, वो वैसा क्यों, कि वो अपना सिर पटक लेगा, वो पागल हो जाएगा. अपने ही रचे ब्रह्मांड के संतुलन को लेकर कन्फयूज हो जाएगा.
आदमी अपनी संरचना तो समझ नहीं पा रहा. जबकि सभी धर्मोंग्रन्थों में ये कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में कहा गया है इंसान ब्रह्मांड की पहली कड़ी है. इसका पूरा रहस्य खुद उसके अंदर है. आदमी समेत हर सजीव का मन (एक अदृश्य अंग) जीवन के संतुलन का सबसे बड़ा कारक है. ये वो कोना है जो पूरी तरह 'लीकेज प्रूफ' है, इसमें तीनों काल-भूत भविष्य और वर्तमान समाहित है. उसने क्या किया है, क्या करने वाला है और क्या कर रहा है तमाम सूचनाएं भरी होती है. बुरी से बुरी भावना, घृणा, द्वेष, कटुता, पशुता, लालच, घमंड, जो भी कह लें सब इसी में कैद है, लेकिन इसका पता सामने वाले को नहीं चलता. पता वही चलता है, जिसे हम चाहते हैं, जिन्हें हम शब्द देते हैं.
यानी दो जीवों (आदमी समेत) के बीच का संतुलन हमारी भाषा पर डिपेंड करता है. अगर खराब होता है, तो उसके लिए सीधे-सीधे जिम्मेवार हम हैं, ईश्वर नहीं, क्योंकि संतुलन कायम रखने के लिए उसने लीकेज-प्रूफ मन दिया, लेकिन हमने उसे जाहिर करने के लिए छीछालेदार भाषा बना दी. तेल, पानी, गैस (और बेशक ब्लॉग) के झगड़े कहने को है, दुनिया के तमाम कलेश की वजह है हमारी कलुषित भाषा,जो मन के उन तमाम कलुष विचारों से पैदा होती है, जिन्हें ईश्वर के नियम के मुताबिक मन की कालकोठरी से बाहर नहीं आने देना है. संतुलन के लिए निजता हर हाल में कायम रहनी चाहिए. क्योंकि जब इसपर चोट होती है, तो फिर इंसान ईश्वर को भी नकारने पर उतारु हो जाता है.
भाषा अपने मूल रूप में पानी की तरह सहज होती है, लेकिन आदमी की आदिम आदत है, वो अपनी भाषा से अलौकिक संतुलन का कबाड़ा करता रहा है. जिस किसी ने भी व्यंग्य विधा की रचना की होगी, उसने आदमी की इसी कमजोरी की नस पकड़ी होगी- कि उसकी आदत भी निबह जाए और बात भी न बिगड़े, उसके मन का कलुष, उसकी तल्खी जब निकले, तो हास्य की चासनी में लिपट कर, लेकिन लगता है अब आदमी का काम अब भाषा की इस चासनी से काम नहीं चलने वाला.
ये कोई प्रवचन नहीं, मैं धार्मिक परिभाषा के मुताबिक निहायत ही नास्तिक आदमी हूं. वो तो आदमी के बीच बिगड़ते संतुलन ने मन में ईश्वर का खयाल ला दिया. सोचने पर मजबूर कर दिया कि अगर यूं ही चलता रहा तो क्या होगा उसके हैरतअंगेज संतुलन का. आप तो खैर ब्लॉग-ब्लॉग भटकने वाले पाठक हैं, देख ही रहे होंगे, भाषा के नाम पर कैसी गंद मची है, मौलिक रूप में ब्लॉग तो वो जगह है, जो किसी भी और माध्यम- टीवी, रेडियो, अखबार हर माध्यम से ज्यादा जुड़ने का मौका आदमी को देता है. लेकिन यहां तो निजी छींटाकशी का दौर चल पड़ा है. कई कई ब्लॉग तो ऐसे हैं, जिन्हें आप सार्वजनिक रूप से पढ़ नहीं सकते.
जुड़ने से ज्यादा पुरानी दोस्ती तक टूट रही है.
कुछ करना होगा बंधू!

टिप्पणियाँ

ईश्वर मात्र एक अवधारणा है। और ईश्वर इसी रुप में है। आप कहीं भी चले जाइए वह इसी रूप में मिलेगा।
भाषा का सवाल भी महत्वपूर्ण है। भाषा का मुख्य काम है संवाद की स्थापना और अगर भाषा ही संवाद तोड़ने लगे तो वह विभाषा हुई।
सुबह सुबह पढ़ कर आनंद आ गया विनोद जी। वाकई कुछ करना होगा। तो कर लेते हैं।
आप बताइए क्या करें?
पहले तो यह करें कि संवाद की पहली बाधा शब्द पुष्टिकरण हटा दें।

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