कमिंग अप...


अरसा हो गया आपसे मुखातिब हुए.
आप उपरोक्त वाक्य की नाटकीयता पर मत जाइए, वाकई अरसा हो गया खामोश हुए.
आप कह सकते हैं इस खामोशी को निर्जन चुप्पी, एक मरी हुई खामोशी. मैंने अपने होने का आखिरी निशान (पोस्ट) मोहब्बत के पर्व से ठीक एक दिन पहले दिया था (13 फरवरी), और आज जब मैं अपना होना फिर से साबित कर रहा हूं, ये आतंक की अगली रात है- जयपुर ब्लास्ट के गुबार से भरी हुई, खून में सनी, कराहों में लथपथ, टूटे हुए भरोसों की एक काली रात...
बात जिस निर्लज्ज नायक के साथ खत्म हुई थी, ये रात उससे कहीं ज्यादा खतरनाक हो चुकी है. वो नायक अपनी करतूतों की वजह से खुद हास्यास्पद हो गया है, वो जितनी जोर से मराठा राग अलापता है, खुद को महाराष्ट्र का अकेला हितैषी बताता है, लोग अब उतनी ही जोर से बोलने लगे हैं- देखो, फिर बोला राज, अगर हमारी टीवी की भाषा में कहें तो राज ने फिर उगली आग, फिर उगला जहर, अब आखिर हम कितनी बार कहें फिर, हर दूसरी बात तो ये फिर-फिर हो जा रहा है, 'राज' के साथ खबर की स्क्रिप्ट भी हास्यास्पद होती जा रही है, सो मैंने रियेक्ट करना छोड़ दिया...क्या मुंह लगाना!

लेकिन, ये चुप्पी ठीक नहीं थी...
पता नहीं आज ऐसा क्यों लग रहा है, क्यों लग रहा है कि आदमी का अपनी खोल में दुबक जाना खुदकुशी के बराबर है, गुलाबी शहर की जख्मी गलियों ने जागती आंखों के तमाम सपने बेमानी कर दिए हैं, डर लगता है अब कभी खुद को लेकर खुशफहमी पालने में, जिंदगी इतनी सस्ती हो चुकी है नफरत के सौदगारों के लिए. वैसे साबित तो इन्होंने कई बार किया है- कि जब जब कोई मजहब या पंथ, राष्ट्र या समुदाय का अगुवा बनने की कोशिश करता है, उसका इकलौता हितेषी होने का दावा करता है, वो फिर इंसान नहीं रह जाता, क्योंकि वो इंसानियत की कीमत पर अपने संबंधित समुदाय का अस्तित्व चाहता है, इसे हासिल करने के लिए वो लाशें बिछा सकता है, और जब उसका अस्तित्व कायम हो जाए, तो भी लाशें बिछाने का सिलसिला नहीं थमता, क्योंकि तब वो अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए वो तरकीब लगाता है- डिवाइड एंड रूल...

किसी को लग नहीं रहा है, लेकिन ये फार्मूला आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक हो चुका है. धमाके अब दहशत पैदा करने से ज्यादा, भाईचारा तोड़ने के लिए किये जा रहे हैं. आतंकवादी तो आतंकवादी दुनिया भर के सियासतदान भी यही फार्मूला अपना रहे हैं.

ये बेहद खतरनाक समय है, ये वक्त खामोश रहने का नहीं हैं, जिंदगी को हमें हमेशा 'टीज'* करते रहना होगा, ताकि अगली सांसों को चलते रहने का भरोसा पहले ही मिल जाए, टूटते हुए भरोसे को जुड़े रहने का आस मिल जाए, घुटती हुई आस को ख्वाबों का जहां मिल जाए, और दर्द से कराहते जहां के जख्म को इंसानी मरहम मिल जाए.
So, lets fire the band- Coming up next

*(टीवी की भाषा में टीज करना ब्रेक से पहले अगली खबर की झलक दिखाने को कहते हैं, ये दर्शको को बुलेटिन से बांधे रखने का पॉपुलर फार्मूला है.)

टिप्पणियाँ

शोभा ने कहा…
बहुत सही और सच कहा है आपने। सुन्दर भाव और सुन्दर भाषा का प्रयोग प्रभावी लगा।
Unknown ने कहा…
13 फ़रवरी के बाद सीधे 14 मई को पोस्ट? ऐसे कैसे चलेगा हिन्दी ब्लॉगिंग का भविष्य? भाई साहब कम से कम दो-चार दिन में एक पोस्ट तो लिखिये ना, इतना अच्छा लिखते हैं तो शर्माते क्यों हैं? :) :) बक-अप अगली पोस्ट (बल्कि पोस्टें) जल्दी-जल्दी आना चाहिये जी… लगे रहिये, शुभकामनायें

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